सफला एकादशी |
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सफला एकादशी पोष मास की इस एकादशी को भगवान विष्णु के अच्युत रूप नारायण की पूजा की जाती है। पूजा में आप भगवान विष्णु की प्रतिमा का प्रयोग करें अथवा श्रीकृष्ण जी के विग्रह का , इससे कोई अंतर् नहीं पड़ेगा , क्योकि दोनों ही एक रूप और साक्षात परमब्रह है। इस व्रत को करने से समस्त कार्यों में निस्सन्देह सफलता मिलती है और इसीलिए इसका नाम सफला एकादशी है। |
मोक्षदा एकादशी का वृतांत समाप्त होते ही धर्मराज युधिष्ठर ने भगवान श्रीकृष्ण से विनती की - हे भगवान विष्णु के साक्षात् स्वरूप पौष मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का क्या नाम है उस दिन किस देवता की पूजा की जाती है तथा उसकी क्या विधि है भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - हे धर्मराज मै तुम्हारे स्नेह के कारण तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ। एकादशी व्रत से अधिक तो में अधिक से अधिक दक्षिणा देने वाले यज्ञ से भी प्रसन्न नहीं हूँ। अतः तुम इसे अत्यंत भक्ति और श्रद्धा से युक्त एकाग्र मन से सुनो इस पौष कृष्ण एकादशी का नाम सफला है। इस एकादशी के देवता श्री नारायण है अतः नारायण भगवान की पूजा करनी चाहिए। जिस प्रकार नागों में शेषनाग , पक्षियों में गरुड़ और सब ग्रहो में चन्द्रमा , यज्ञों में अश्वमेघ , देवताओ में भगवान विष्णु श्रेष्ठ है, उसी तरह सब व्रतों में एकादशी व्रत श्रेष्ठ है। जो मनुष्य सदैव एकादशी का व्रत करते है , वे मुझ को परम प्रिय है। अब इस व्रत की विधि कहते है। मेरी पूजा के हेतु ऋतु के अनुकूल फल - फूल ,नारियल , नीबू , अनार ,सुपारी आदि मेरे अर्पण करें। धूप , दीप , नैवेधा आदि से मेरी षोडशोपचार पूजा करें और रात्रि को जागरण करें। इस एकादशी के व्रत के समान यज्ञ , तीर्थ ,दान , तप , तथा और कोई दूसरा व्रत नहीं है। पांच हज़ार वर्ष तप करने से जो फल मिलता है, उससे भी अधिक फल सफला एकादशी का व्रत करने से मिलता है। अब तुम इस एकादशी की कथा ध्यानपूर्वक सुनो -
चम्पावती नगरी में महिष्मान नाम का एक प्रतापी राजा राज्य करता था। उसके चार पुत्र थे। उन सब में लुम्पक नामक बड़ा राजपुत्र महापापी था। वह पापी सदा पर - स्त्री , वेश्यागमन और दूसरे बुरे कामों में अपने पिता का धन नष्ट किया करता था। व देवताओं , ब्राह्मणों और वैष्णवों का निन्दक था। जब राजा को अपने बड़े पुत्र के इन कुकर्मो का ज्ञान हुआ तो उसको अपने राज्य से निकाल दिया। तब वह विचारने लगा कि अब किधर जाऊँ , क्या करूँ अंत में उसने चोरी का कर्म करने का निश्चय किया। वह दिनभर वन में रहता और रात्रि को अपने पिता की नगरी में चोरी करता। वह प्रजा को तंग करने और मारने का कुकर्म भी करत। वह वन में पशुओं आदि को भी मार का खा जाता था। राज्य कर्मचारी उसको इन कुकर्मों के कारण पकड़कर भी राजा के डर के मारेछोड़ देते थे। वन में
एक अत्यंत प्राचीन पीपल का वृक्ष था। लोग उसकी
भगवान के समान पूजा किया करते थे। उसी वृक्ष
के निचे वह महापापी लुम्पक रहा करता था। इस
वन को लोग देवताओं का क्रीड़ास्थल मानते थे। पौष के कृष्णपक्ष की दशमी के दिन वह वस्त्रहीन होने
के कारण शीत के मारे समस्त रात्रि सो न सका और मूर्छित हो गया। उसके हाथ पैर अकड़ गए और सूर्यादय होने पर भी उसकी
मूर्छा नहीं गई। दूसरे दिन सफला एकादशी को
दोपहर के समय सूर्य की गर्मी से उसकी मूर्छा दूर
हुई तो वह होश में आकर गिरता - पड़ता
वन में भोजन की खोज में भटकने लगा। परन्तु
शारीरिक कमजोरी और कष्ट के कारण वह वृक्षों से गिरे हुए फलो को बीनकर पीपल के वृक्ष
के नीचे आया। उस समय तक सूर्य भगवान अस्त हो
गये थे। उसने फलो को पीपल के वृक्ष के नीचे
रख दिया और रो -रोकर कहने लगा भगवान यह सब फल - फूल आपके ही अर्पण है। आप ही इनसे तृप्त होइये। उस रात्रि भी उसको दुःख के मारे नींद नहीं आई और
वह रो - रोकर भगवान को याद कर्ता रहा।
इस प्रकार उससे अनजाने में ही सफला एकादशी का उपवास
और रात्रि में ईश्वर भक्ति हो गई। इस उपवास
तथा जागरण से भगवान अत्यन्त प्रसन्न हुए और उसके सब पाप नष्ट हो गये। दूसरे दिन प्रातः समय अनेको सूंदर वस्तओं से सजा एक अति सूंदर घोडा उसके सामने
आकर खड़ा हो गया। उसी समय आकाशवाणी हुई कि हे
राजपुत्र भगवान नारायण की कृपा से तेरे समस्त
पाप नष्ट हो गये है। अब तू अपने पिता के पास
जाकर राज्य प्राप्त कर। लुम्पक ने जब ऐसी आकाशवाणी
सुनी तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। हे भगवान आपकी जय हो कहते हुए उसने घोड़े की पीठ पर
रखा खाना खाया और वस्त्र एवं आभूषण पहन लिए।
घोड़े पे चढ़कर वह अपने पिता कर पास गया और सम्पूर्ण कथा कह सुनाई। कुछ समय बाद राजा महिष्मान ने लुम्पक को अपना राजयभार
सौप दिया और स्वयं तपस्या करने वन में चला गया।
अब लुम्पक शास्त्रानुसार राज्य करने लगा।
उसके स्त्री , पुत्र आदि भी नारायण
के परम भक्त बन गय। वृद्धावस्था आने पर भी
वह अपने पुत्र को गददी देकर भगवान का भजन करने के लिए वन में चला गया और अंत में विष्णुलोक
प्राप्त हुआजो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस सफला एकादशी का व्रत करते है उनको सभी कार्यों
में सफलता मिलती है और अंत मैं मुक्ति मिलती है जो मनुष्य इस एकादशी का व्रत नहीं करते
वे पूँछ और सींगो से रहित पशु के समान है।
इस सफला एकादशी के व्रत का प्रभाव तो अनन्त है ही , इसके महात्म्य के पढ़ने अथवा
सुनने से भी अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
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